ओम बिरला को विपक्ष की नसीहत, तंज और ताने… इन 5 वजहों से विवादों में रहा पिछला कार्यकाल
ओम बिरला अगले पांच साल के लिए फिर एक बार लोकसभा स्पीकर चुन लिए गए हैं. बिरला के दोबारा से कुर्सी पर आसीन होने के बाद सत्तापक्ष ने भले उनकी जमकर सराहना की लेकिन विपक्ष ने बधाई और शुभकामनाओं की चासनी में मीठी-मीठी झिड़की और नसीहत भी दे डाली. इसकी वजह पिछले 5 साल के दौरान ओम बिरला और उनसे जुड़े कुछ विवाद रहें.
आम सहमति से इस दफा लोकसभा स्पीकर नहीं चुना जा सका. एनडीए और इंडिया में एक राय बनते-बनते रह गई. लोकसभा अध्यक्ष के पद के लिए एनडीए ने ओम बिरला का तो विपक्ष ने के. सुरेश का नाम आगे किया. वोटिंग की नौबत भले नहीं आई लेकिन सांकेतिक तौर पर विपक्ष ने ओम बिरला के नाम पर ऐतराज जताया. चूंकि एनडीए के पास संख्याबल मौजूद था, ध्वनि मत से ही उनका काम हो गया. और राजस्थान की कोटा से जीत की हैट्रिक लगा लोकसभा पहुंचे ओम बिरला दूसरी बार सभापति चुन लिए गए. ओम बिरला का पहले तो सांसद के तौर पर और फिर स्पीकर चुना जाना एक साथ कई रिकॉर्ड बनाने वाला रहा.
पिछले 20 साल में वह पहले ऐसे नेता रहे जो स्पीकर चुने जाने के बाद दोबारा सांसद भी चुने गए. वरना ज्यादातर मामलों में स्पीकर पद पर आसीन रहा शख्स या तो चुनाव नहीं लड़ता था या लड़े भी अगर तो उसका जीतना मुश्किल हो जाता था. बिरला का नाम उन नेताओं में भी शुमार हो गया जो लगातार दूसरी बार लोकसभा के स्पीकर बने. उनसे पहले एम. ए. अय्यंगर, गुरदयाल सिंह ढिल्लों, बलराम जाखड़ और जीएमसी बालयोगी को ये मौका मिला था. ये और बात कि इनमें केवल जाखड़ ही ऐसे रहें जिन्हें पांच साल पूरा करने के बाद एक और कार्यकाल मिला. जाखड़ के बाद बिरला दूसरे ऐसे स्पीकर हैं जिन्हें 5 साल और स्पीकर की कुर्सी मिली है.
लगातार तीन बार राजस्थान विधानसभा की कोटा (दक्षिण) सीट से विधायक रह चुके बिरला बतौर सांसद लोकसभा में आज दूसरी दफा जब स्पीकर की कुर्सी पर बैठे तो सत्ता पक्ष की ओर से नरेन्द्र मोदी (प्रधानमंत्री), लवू श्री कृष्ण देवरायलु (टीडीपी), श्रीरंग अप्पा चंदू बारने (शिवसेना), अनुप्रिया पटेल (अपना दल कमेरावादी) ने न सिर्फ बधाई दी बल्कि बिरला की प्रशंसा में कसीदे भी काढ़े. वहीं, विपक्ष की तरफ से नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी, समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव, डीएमके के नेता टीआर बालू, तृणमूल कांग्रेस के सुदीप बंधोपाध्याय ने शुभकामना देते हुए एक मंझे हुए राजनेता की तरह इशारों-इशारों में कुछ नसीहतें भी दे डालीं.
ओम बिरला को बधाई देने के लिए खड़े हुए विपक्ष के ज्यादातर नेताओं की जुबान पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से 150 सांसदों के निलंबन का मुद्दा रहा. अखिलेश यादव ने उम्मीद जताई कि बिरला के नए कार्यकाल में किसी भी जनप्रतिनिधि की आवाज दबाई नहीं जाएगी और निष्कासन जैसी कार्रवाई से सदन की गरिमा को ठेस नहीं पहुंचाया जाएगा. अखिलेश ने स्पीकर पर तंज कसते हुए यहां तक कहा कि – उनका विपक्ष पर तो अंकुश रहता ही है, इस बार सत्ता पक्ष पर भी अंकुश रहना चाहिए. ताना मारते हुए अखिलेश ये कहने से भी नहीं चूके कि “अध्यक्ष महोदय, आपके इशारे पर सदन चले, इसका उल्टा न हो.”
राहुल गांधी ने भी इसी बात को दूसरी तरह से कहा. बकौल राहुल – “विपक्ष की आवाज को चुप करा सदन को प्रभावशाली तरीके से चलाना एक अलोकतांत्रिक विचार है.” तृणमूल कांग्रेस के सुदीप बंदोपाध्याय ने तो बिना किसी चर्चा के बिल पास करा विपक्ष को दरकिनार न करने की अपील की. वहीं, डीएमके के टीआर बालू ने भारतीय जनता पार्टी के चुनाव चिह्न कमल का सहारा लेते हुए स्पीकर को नसीहत दी. बालू ने कहा कि “आप कमल के निशान पर जरूर चुने गए हैं, लेकिन जिस तरह कमल पानी पर बहता है पर कभी भी पानी को अपने ऊपर चिपकने नहीं देता, इसी तरह अपील करता हूं कि आप भेदभाव नहीं करेंगे.”
पहला – 100 से ज्यादा लोकसभा सांसदों का निलंबन
पिछले साल का दिसंबर, 17वीं लोकसभा का अंतिम शीतकालीन सत्र चल रहा था. इसी दौरान 13 दिसंबर – संसद पर हमले की बरसी के दिन, 2 प्रदर्शनकारी लोकसभा के भीतर घुस गए और नारेबाजी करने लगे. उन्होंने संसद में गैस कैनिस्टर लहराया जिससे कुछ रंगीन धुंआ निकला. इसे संसद में घुसपैठ माना गया.
विपक्ष इस मांग पर अड़ गया कि संसद की सूरक्षा में हुई चूक पर पहले गृहमंत्री अमित शाह बयान दें, विस्तृत चर्चा हो तभी सदन की कार्यवाही आगे बढ़े. ताकतवर सरकार पीछे नहीं हटी. हफ्ते भर गतिरोध चलता रहा. और फिर ऐसा हुआ जो भारतीय लोकतांत्रिक इतिहास में शायद पहले कभी नहीं हुआ था.
दोनों सदन के करीब 150 सांसदों को एक झटके में निलंबित कर दिया गया. इनमें कम से कम 100 सांसद लोकसभा के थे. तब यही ओम बिरला लोकसभा स्पीकर के थे. उनके इस फैसले के बाद न सिर्फ विवाद हुआ बल्कि विपक्ष ने निलंबन को तानाशाही करार देते हुए सरकार पर संसद में बुलडोजर चलाने का आरोप लगाया.
दूसरा – राहुल, महुआ का निलंबन लेकिन बिधूड़ी का नहीं
“नीरव मोदी, ललित मोदी, नरेंद्र मोदी का सरनेम कॉमन क्यों है? सभी चोरों का सरनेम मोदी क्यों होता है?” – 13 अप्रैल, 2019 को कर्नाटक की एक रैली में दिया गया राहुल गांधी का बयान 4 साल बाद उनके लिए मुसीबत बन गया. सूरत की सेशन कोर्ट ने पिछले साल 23 मार्च को इस बयान की वजह से राहुल को आपराधिक मानहानि के मामले में दोषी मानते हुए दो साल की सजा सुना दी.
राहुल गांधी इससे पहले की उच्च न्यायालय या फिर सुप्रीम कोर्ट में सजा के खिलाफ अपील करते, अगले ही दिन 24 मार्च को बतौर सांसद उन्हें अयोग्य ठहरा दिया गया. जाहिर सी बात है ये फैसला तत्कालीन स्पीकर ओम बिरला की रजामंदी के बगैर नहीं हुई होगी. कांग्रेस ने इसे आनन-फानन में लिया गया फैसला कहा और अदाणी-हिंडनबर्ग मामले में सदन में पुरजोर तरीके से बोलने की कीमत कहा.
इसी तरह पैसे और गिफ्ट्स के एवज में संसद में सवाल पूछने के आरोप में (कैश फॉर क्वेरी मामले) जब तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा का निष्काषन हुआ तो उसे भी विपक्ष ने जल्दबाजी में लिया गया फैसला कहा. आरोप लगे कि मोइत्रा को अपनी बचाव में कुछ भी कहने नहीं दिया गया. साथ ही, महुआ पर इल्जाम लगाने वाले हीरानंदानी से पूछताछ नहीं करने को लेकर भी एक संस्था के तौर पर लोकसभा की आलोचना हुई.
ये आलोचना तब शायद उतनी न होती अगर बतौर लोकसभा स्पीकर ओम बिरला ने सत्तापक्ष के भी कुछ सांसदों पर तुरंत कार्रवाई किया होता. दरअसल, जब नई संसद के विशेष सत्र में चर्चा के दौरान भाजपा नेता रमेश बिधूड़ी ने बहुजन समाज पार्टी के सांसद कुंवर दानिश अली को इस्लामोफोबिक गालियां दीं तो स्पीकर ओम बिरला ने जरूर सख्त कार्रवाई की बात की लेकिन वह बात ही रह गई.
तीसरा – डेप्युटी स्पीकर के लिए दबाव न बनाने के आरोप
आजाद भारत में केवल 17वीं लोकसभा ही ऐसी रही जब 5 बरस बिना डेप्युटी स्पीकर के चुनाव ही के गुजार दिए गए. रवायत रही है कि सदन का स्पीकर सत्ताधारी दल का होता है और डेप्युटी स्पीकर का पद विपक्ष को मिलता है. मगर 300 से भी अधिक सीट हासिल कर सत्ता में आने वाली भारतीय जनता पार्टी ने इसकी जरुरत नहीं समझी.
बतौर स्पीकर ओम बिरला की ओर से डेप्युटी स्पीकर के पद पर नियुक्ति के लिए दबाव न बनाने को अच्छा नहीं देखा गया. आज भी जब दूसरी मर्तबा बिरला स्पीकर चुने गए तो तमाम बधाई, शुभकामनाओं और तंज के बीच असद्दुदीन ओवैसी ने झिड़की देते हुए जरूर कह दिया कि इस बार उन्हें उम्मीद है कि स्पीकर अपना काम थोड़ा हल्का करेंगे और डेप्युटी स्पीकर चुनने की प्रक्रिया आगे बढ़ेगी.
इस दफा सत्तापक्ष और प्रतिपक्ष के बीच लोकसभा के स्पीकर पद पर सहमति न बनने की वजह भी डेप्युटी स्पीकर ही का पद रहा. विपक्ष परंपरा के हिसाब से उस पर अपना दावा ठोक रही थी जबकि सरकार का कहना था कि वह इस तरह के शर्त के आधार पर समर्थन की दरकार नहीं रखती. एसे में, मुमकिन है कि दोबारा से सदन बगैर डेप्युटी स्पीकर के चले या फिर भाजपा अपने सहयोगियों को यह भूमिका दे.
चौथा – ब्राह्मणों को श्रेष्ठ बताने पर जब मचा था घमासान
ये वाली बात अब लोगों की स्मृति से थोड़ी जा चुकी है लेकिन यह भी विवाद ओम बिरला के स्पीकर रहने के ही दौरान हुआ था. बिरला 2019 में नए-नए स्पीकर चुने ही गए थे. इसके बाद वह अपनी संसदीय सीट कोटा में एक अखिल भारतीय ब्राहम्ण महासभा के कार्यक्रम में शामिल हुए.
बाद में कार्यक्रम की तस्वीरें अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ट्विटर (जिसे अब एक्स कहा जा रहा) पर साझा करते हुए लिखा – “समाज में ब्राह्मणों का हमेशा से उच्च स्थान रहा है. यह स्थान उनकी त्याग, तपस्या का परिणाम है. यही वजह है कि ब्राह्मण समाज हमेशा से मार्गदर्शक की भूमिका में रहा है.”
उनकी इस टिप्पणी की न सिर्फ विपक्षी पार्टियों ने बल्कि समाज के अलग-अलग वर्गों से आने वाले चिंतकों ने भी निंदा की थी. बिड़ला के बयान की भर्त्सना करते हुए कहा कांग्रेस ने कहा था कि जाति और जन्म के आधार पर नहीं बल्कि मेरिट के आधार पर कोई श्रेष्ठ होता है और स्पीकर का बयान गलत मानसिकता का नतीजा है.
पांचवा – संसदीय और असंसदीय शब्दों को लेकर बखेड़ा
साल 2022. मॉनसून सत्र शुरू होने वाल था. इससे पहले लोकसभा सचीवालय ने हिंदी और अंग्रेजी के कुछ शब्दों की सूची जारी कर दी. कहा गया कि इन शब्दों का सदन में इस्तेमाल असंसदीय माना जाएगा. जुमलाजीवी, बाल बुद्धि, बहरी सरकार, उल्टा चोर कोतवाल को डांटे, उचक्के, गुंडों की सरकार, दोहरा चरित्र, चोर-चोर मौसेरे भाई, चौकड़ी, तड़ीपार, तलवे चाटना, तानाशाह, दादागिरी जसै शब्दों को असंसदीय करार दिए जाने पर स्पीकर विवादों में आए.
विपक्ष ने 2022 की सूची को उनकी आवाजा दबाने की चाल करार दिया. हालांकि, लोकसभा के स्पीकर बिरला ने बाद में स्पष्ट किया था कि किसी भी शब्द पर कोई बैन नहीं लगा है, कार्यवाही से विवादित शब्दों को हटाए जाने की प्रक्रिया सालाना होती है और इसमें विपक्ष के साथ-साथ सत्तापक्ष की ओर से कहे शब्द भी शामिल हैं. ये पूरी तरह स्पीकर ही के अधिकार क्षेत्र में आता है कि किस शब्द को संसदीय माना जाए और किसे असंसदीय ठहराते हुए सदन की कार्यवाही से बाहर कर दिया जाए.