परिपक्वता, नियंत्रण और विरासत… 2024 के राहुल गांधी में क्या कुछ बदल चुका है?

गांधी परिवार और कांग्रेस के आंगन में एक शर्मीले लड़के की लड़खड़ाती हिंदी अब एक सधी हुई राजनीतिक भाषा बन चुकी है. इस नए अवतार में पार्टी पर नियंत्रण भी है और राजनीति का कौशल भी.

 
राहुल गांधी

 

राजनीति के आइने में छवियां स्थायी नहीं होतीं. चेहरा वही होता है. अक्स बदल जाता है. जिसे हम कोई और समझ रहे होते हैं वो कोई और बन जाता है. छवियों का बनना और बिगड़ना राजनीति की घड़ी में नियति की तरह है. कभी 1 का डंका बजता है. कभी 6 का और कभी घड़ी 12 बजा देती है.

राहुल गांधी अब चश्मा नहीं लगाते. लेकिन जनस्मृति में उनकी पहली तस्वीर इंदिरा गांधी और फिर राजीव गांधी की अंतिम यात्राओं की ही है. इंदिरा गांधी के शव के पास एक छोटा बालक चश्मा लगाए खड़ा है. फ्रेम बदल जाता है पर चश्मा रहता है राजीव गांधी के शव के पास खड़े राहुल की आंखों पर भी. तब राहुल चश्मे से दुनिया को देखते थे. राहुल का ये चेहरा निजी चेहरा है. उस चेहरे पर चश्मा है. नुकसान निजी है. दुनिया निजी है. कुछ भी राजनीतिक नहीं है सिवाय आस-पास खड़े राजनीतिक लोगों के.

इसके बाद के राहुल 90 के दशक के आखिरी वर्षों के राहुल हैं. मां के लिए वोट मांगते हुए. लोग बहन प्रियंका गांधी में भविष्य की इंदिरा देख रहे थे और राहुल में राजनीति के प्रति संकोच. इसी संकोच से खींचकर बाहर निकालने के क्रम में राहुल राजनीति के धरातल पर उतरे. बिखरी हुई हिंदी, भीड़ के प्रति असहजता, समझने-समझाने का संकट और तात्क्षणिक निर्णय. रोड-शो में चेहरा बनते रहे राहुल 2004 में अमेठी से कांग्रेस के प्रत्याशी बने. ये सबसे आसान ज़मीन थी. देखी-परखी थी. राहुल चुनाव जीत गए. ये सिलसिला 2014 तक चला और राहुल 3 बार अमेठी से संसद पहुंचे.

इस दौरान परिवार और पार्टी ने उन्हें 2007 में छात्र संगठन एनएसयूआई की ज़िम्मेदारी दी. साथ ही पार्टी का महासचिव भी बनाया गया. राहुल ने लिंगदोह की सिफारिशों के ज़रिए छात्र इकाई में प्रयोग किए जो सार्थक नहीं हो सके. महासचिव के रूप में सबसे बड़ी बात जो लोगों को याद है वो है ऑर्डिनेंस फाड़कर सजायाफ्ता जनप्रतिनिधियों को रोकने का रास्ता खोल देने वाला निर्णय ही था जिसमें उन्होंने मनमोहन सिंह की सरकार को सार्वजनिक रूप से बौना बना दिया था.

विरासत की हिरासत

नरसिंह राव और सीताराम केसरी से होते हुए जो पार्टी सोनिया गांधी के नेतृत्व में सहज हो चुकी थी और 10 बरस सत्तासुख भी भोग चुकी थी, उसके लिए राहुल एक असहज वारिस बनते जा रहे थे. राहुल के तरीकों पर टिप्पणियां होने लगीं. राहुल की क्षमता पर सवाल उठाए गए. राहुल राजनीति के प्रति गंभीर नहीं हैं जैसी बातें प्रचारित की गईं. रही सही कसर अन्ना आंदोलन और कांग्रेस की राजनीति के विरोधी रहे दलों ने पूरी की. सोशल मीडिया का बूम था और उसमें निंदारस की चाशनी में गिरी हुई मक्खी बना दिए गए थे राहुल जो किसी के लिए भी व्यंग्यों और उपहास-परिहास के लिए सहज विषय बन गए थे.

दूसरी तरफ राहुल अपने तरीके की राजनीति के लिए पार्टी के अंदर और बाहर जूझते नज़र आए. कांग्रेस को आलस का पाला मार चुका था. जमीन पर कार्यकर्ता नहीं और कंधों पर सहस्र सिर. इस ओल्डगार्ड को राहुल असहज कर रहे थे. 2014 में पार्टी हारी तो राहुल नई कांग्रेस खड़ी करने की कोशिशों में लग गए. लेकिन हार के मरुस्थल, मोदी के मॉडल और एक के बाद एक विफल होते रिफॉर्म के दौरान राहुल और भी घिरते गए. कई नेता पार्टी से छिटककर चले गए. कइयों ने सोनिया तो कभी प्रियंका गांधी को ही जमात की संभावना बताकर राहुल विरोध जारी रखा.

राहुल इस दौरान विपक्ष के लिए पप्पू और पार्टी के लिए दुविधा बन चुके थे. 2013 में पार्टी के उपाध्यक्ष और फिर 2017 में कांग्रेस अध्यक्ष पद पर राहुल पहुंचे लेकिन 2019 की हार ने जैसे विद्रोह को शब्द दे दिए. राहुल इस्तीफा देकर कोपभवन में गए. हाथ से अमेठी की सीट भी गई. और कांग्रेस की फूट खुलकर चौराहों की चकल्लस बन गई.

कितने ही चेहरे हैं. कपिल सिब्बल, आनंद शर्मा, मनीष तिवारी, संदीप दीक्षित, गुलाम नबी आजाद, आरपीएन सिंह, ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद, कैप्टन अमरिंदर, वीरेंद्र सिंह, अश्विनी कुमार, एसएम कृष्णा, अशोक चव्हाण, जो पार्टी से या तो मुक्त हो गए या बागी. चुनावों में भी राहुल के प्रयोग ज़मीन पर जीत में तब्दील नहीं हुए. कांग्रेस औऱ राहुल सतत कमज़ोर होते गए.

भारत यात्रा और सामाजिक न्याय

राहुल की राजनीतिक यात्रा में भारत जोड़ो यात्रा एक अहम पड़ाव बनकर आया. अभी तक राहुल चश्मे में ही थे. लेकिन अब चश्मा उतरने की बारी थी. आंखों से नहीं, नज़र से. एक पुराने से फ्रेम से निकलकर राहुल ने देश को, समाज को, जनता को नए सिरे से देखना शुरू किया. देश के बारे में उनकी धारणा बदली और उनके बारे में देश की. पहली बार लोगों को लगा कि सफेद टी-शर्ट पहने ये युवा चेहरा कुछ तो कर रहा है. इस बिखरी और बढ़ी हुई दाढ़ी के पीछे लोगों को एक ईमानदारी नज़र आई और राहुल के प्रति निगेटिव नैरेटिव को अब ढलान मिलने लगा.

दूसरा बड़ा मंत्र बना सामाजिक न्याय. महिलाओं, पिछड़ों, दलितों, अल्पसंख्यकों, आदिवासियों, गरीबों के हक और हित के मुद्दों को राहुल ने अपनी भाषा बनाया. राहुल का नैरेटिव एक प्रो-पीपुल नैरेटिव है अब. राहुल कार्पोरेट पर हमला करते हैं. कृपा नहीं, अधिकार देने वाले रिफॉर्म की बात करते हैं. नीतिगत भ्रष्टाचार के प्रश्न पूछते हैं. जो आर्थिक रूप से कमज़ोर हैं, उनके लिए बूस्टर घोषणापत्र बनाते हैं. इन सब के बीच बड़े शब्द हैं जातियों को न्याय, संविधान की रक्षा और आरक्षण पर हमले को रोकना.

देश की एक बड़ी आबादी इस नैरेटिव से रिलेट करती है. इसी रिलेटिविटी से वो सहजता आने लगती है जिससे ये लोग धीरे-धीरे राहुल से भी रिलेट करने लग गए हैं. यह अकारण ही नहीं है कि पिछले कुछ समय में राहुल गांधी और कांग्रेस की तरफ मुस्लिम वोटों की वापसी हो रही है. दलितों के बड़े नायक जब एक-एक कर समर्पण करते दिख रहे हैं, देश की ये बड़ी आबादी राहुल में अपने लिए संभावना देखने लगी है. जातियों से निकलकर आगे बढ़ने के दावों वाले समय में जातियां जिस सामाजिक न्याय को अपने कलेजे से लगाकर रखती हैं, उसके लिए राहुल ने एक मशाल उठाई है.

2024 के राहुल

आम चुनाव के नतीजों के बाद राहुल एक नए अवतार में सबके सामने हैं. चश्मा जा चुका है. धूल बैठ चुकी है. पार्टी के अंदर का विरोध या तो आत्मसमर्पण कर चुका है और या फिर चुनाव हारकर अब अपने आखिरी मौके में परास्त हो चुका है. मां-बाप के समय के अनिवार्य चेहरे अब यहां से नेपथ्य में चले जाएंगे. विरासत के अधिकतर परिवार या तो नतमस्तक हैं और या फिर पंगू. अब राहुल की विचारधारा ही कांग्रेस की विचारधारा है. राहुल की सोच ही कांग्रेस का नैरेटिव है. सबकुछ राहुल के इर्द-गिर्द और जद में आ चुका है.

आज जो कांग्रेस है, वो राहुल की कांग्रेस है. राहुल के लोग ही अब कांग्रेस का संगठन संभाल रहे हैं. पुराने मैनेजर अब बैठकों तक सीमित हैं. धीरे-धीरे वहां भी भीड़ कम होगी. नए चेहरे पार्टी में उभरे हैं. राज्यों में मजबूत किए गए हैं. केंद्रीय समितियों में भी उनका प्रतिनिधित्व बढ़ा है. आज की कांग्रेस को राहुल गढ़ रहे हैं और पुराने खोल से निकलकर आगे बढ़ रहे हैं.

15 साल में ये पहला चुनाव है जब राहुल और पप्पू शब्द एकसाथ इस्तेमाल नहीं हुए. विरोधियों और प्रतिपक्ष को समझ आ चुका है कि राहुल अब पप्पू रहे नहीं और उनको ऐसा कहकर सिवाय नुकसान के कुछ अर्जित नहीं होना है. सोशल मीडिया पर राहुल को सुनने वालों की तादाद बढ़ी है. टीवी पर कांग्रेस के विज्ञापन इसबार भाजपा के विज्ञापनों पर भारी पड़े. पुराने इंटरव्यू की रील्स के जरिए जो ट्रोलिंग राहुल ने इस चुनाव से पहले तक झेली थी, उसके चलते इसबार मीडिया राहुल के इंटरव्यू से वंचित रहा. राहुल ने इस तरह मीडिया को अवसर से वंचित किया और एक कठिन संदेश भी दिया.

यूपी के जनादेश में राहुल की एक बड़ी भूमिका है. दलितों को समाजवादी पार्टी के बटन तक लाना आसान नहीं था. पीडीए का फार्मूला अखिलेश के लिए रामबाण था लेकिन उसके लिए पुल का काम राहुल ने ही किया. संविधान और आरक्षण का नैरेटिव दलितों के बीच मुद्दा तो बन गया था पर असल चुनौती थी दलितों का वोट सपा में शिफ्ट करवाना. इस सहजता को राहुल के नाम पर ही अर्जित किया जा सका.

उत्तर प्रदेश में मुस्लिम वोट पिछले 10 साल में बंटा हुआ ही नज़र आया. सपा और बसपा के बीच झूलता ये वोटबैंक पिछले कुछ समय में कांग्रेस के प्रति लामबंद होता नज़र आ रहा था. अखिलेश ने इस मूड-शिफ्ट को 2024 की शुरुआत में भांपकर ही कांग्रेस के साथ फेल हो चुकी जोड़ी को दोबारा चांस दिया. सपा को उसका पुराना एमवाई इसलिए अर्जित हुआ क्योंकि वहां कांग्रेस साथ खड़ी दिखी.

आज कांग्रेस मजबूत है. एनडीए को स्पष्ट बहुमत मिला है लेकिन वहां भी पावर बैलेंस दिख रहा है. आने वाले दिनों में कांग्रेस और मुखर होकर देश के सामने एक मजबूत विपक्ष की भूमिका में नज़र आएगी. राहुल इसके नायक होंगे. ऐसा नहीं है कि राहुल के सामने चुनौतियां नहीं हैं या उनमें अब कोई कमी नहीं, लेकिन राजनीति में आदर्श होना ज़रूरी नहीं होता. राजनीति में चश्मे से बाहर देखना ज़रूरी होता है. दूर तक देखना ज़रूरी होता है. देखते रहना ज़रूरी होता है. मोहब्बत की दुकान अब चल पड़ी है. और वो नए ग्राहकों की राह भी देख रही है.