कॉमनवेल्थ खेलों से क्यों बाहर हो गए क्रिकेट, हॉकी और शूटिंग जैसे खेल? क्या भारत के खिलाफ हुई साजिश?

मल्टी स्पोर्ट्स इवेंट यानी एक ही इवेंट में कई सारे खेलों का आयोजन वैसे भी पूरी दुनिया के सामने चुनौती हैं. छोटे-मोटे देश तो ऐसे इवेंट के आयोजन के बारे में सोच भी नहीं सकते. बावजूद इसके 2026 कॉमनवेल्थ खेलों के साथ जो कुछ हुआ वो आयोजन समितियों के लिए बड़ा सबक है. इसके मायने समझना जरूरी है.

 
हॉकी

यूं तो खेलों की दुनिया में भी राजनीति जमकर होती है लेकिन इस बार कहानी राजनीति से ज्यादा पैसे की है. 35 लाख करोड़ की रकम में कितने शून्य आएंगे इसका हिसाब लगाना भी आसान नहीं है तो इतने पैसे इकट्ठा करना तो और मुश्किल होगा. एक रिपोर्ट के मुताबिक ऑस्ट्रेलिया के शहर विक्टोरिया को कॉमनवेल्थ खेलों के आयोजन के लिए 35 लाख करोड़ रूपये खर्च करने पड़ते. हालांकि जब उसने इन खेलों की मेजबानी का दावा ठोंका था तब भी उसे पता रहा होगा कि मल्टी स्पोर्ट्स इवेंट का आयोजन आसान काम नहीं होता लेकिन मेजबानी हासिल करने और फिर खेलों की तैयारी शुरू कराने के पहले समझ आ गया कि इतना पैसा इकट्ठा करना संभव नहीं है. यहां ये भी जानना जरूरी है कि जब विक्टोरिया को मेजबानी मिली थी तब खेलों के आयोजन का अनुमानित खर्च करीब 13-15 लाख करोड़ रूपये था, जो बढ़कर दोगुने से भी ज्यादा हो गया. लिहाजा कॉमनवेल्थ गेम्स फेडरेशन के साथ तय नियम और शर्तों के मुताबिक विक्टोरिया ने मेजबानी के लिए मना कर दिया.

सारी कहानी विक्टोरिया के इस फैसले के बाद शुरू होती है. इस कहानी में एक बड़ा सबक भी है. विक्टोरिया की ‘ना’ के बाद पहला संकट तो ये था कि 2026 कॉमनवेल्थ खेलों को रद्द ना करना पड़े. ऐसे में कॉमनवेल्थ गेम्स फेडरेशन ने कुछ और देशों से संपर्क किया. उन्हें भरोसा दिया कि कुछ आर्थिक मदद भी देंगे लेकिन खेलों को रद्द होने से बचाना चाहिए. हालांकि कॉमनवेल्थ गेम्स फेडरेशन की इस पेशकश पर भी ज्यादातर देशों ने तवज्जो नहीं दी. ऐसे में स्कॉटलैंड के शहर ग्लासगो ने हामी तो भरी, लेकिन इस शर्त के साथ कि वो खेलों की मेजबानी पर ज्यादा खर्च नहीं कर सकते.

कॉमनवेल्थ गेम्स फेडरेशन के पास ज्यादा विकल्प नहीं था

मौजूदा हालात में कॉमनवेल्थ गेम्स फेडरेशन के पास दो ही विकल्प थे, या तो 2026 कॉमनवेल्थ खेलों को रद्द कर दिया जाए या फिर ग्लासगो की शर्तों को माना जाए. ग्लासगो की शर्तों को आसान भाषा में समझे तो उनका कहना था कि वो उन्हीं खेलों का आयोजन कराएंगे जिनका इंफ्रास्ट्रक्चर पहले से मौजूद है. कोई नया स्टेडियम, किसी पुराने स्टेडियम में बड़े पैमाने पर बदलाव या इस तरह की किसी और तैयारी के लिए वो तैयार नहीं थे. ‘बेकार से बेगार भली’ वाली कहावत की तर्ज पर कॉमनवेल्थ गेम्स फेडरेशन ने इसके लिए हामी भर दी. जिसके बाद तय हुआ कि 2026 कॉमनवेल्थ गेम्स में क्रिकेट, हॉकी, बैडमिंटन, शूटिंग, रेसलिंग, टेबल टेनिस जैसे लोकप्रिय खेल नहीं होंगे. आपकी जानकारी के लिए बता दें कि वैसे भी खेलों की आयोजन समिति के पास इसका अधिकार होता है कि ‘कोर खेलों’ को छोड़कर बाकी खेलों को घटा-बढ़ा सकते हैं.

कोर खेल यानी एथलेटिक्स, स्विमिंग, जिमनास्टिक जैसे खेल. चूंकि ग्लासगो में पहले भी कॉमनवेल्थ खेलों का आयोजन 2014 में हुआ था इसलिए ऐसे कोर खेलों के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर पहले से मौजूद है. ऐसे में हॉकी, क्रिकेट, रग्बी, बैडमिंटन, टेबल टेनिस, शूटिंग जैसे लोकप्रिय खेल बाहर हो गए. संयोगवश ये सारे खेल ऐसे हैं जिसमें भारतीय एथलीटों का दावा मजबूत रहता है. वैसे खेलों को जोड़ने-घटाने को लेकर एक उदाहरण ये भी दिया जा सकता है कि 2010 में जब दिल्ली में कॉमनवेल्थ खेलों का आयोजन किया गया तो उसमें आर्चरी को जोड़ा गया था. ऐसा इसलिए क्योंकि आर्चरी में भारत मजबूत है और उसकी ठीक-ठाक लोकप्रियता भी है. लेकिन 2010 के बाद से लेकर अभी तक आर्चरी कभी भी कॉमनवेल्थ खेलों का हिस्सा नहीं रहा.

भारत में क्यों हो रहा है विरोध

पुलेला गोपीचंद खेलों की दुनिया की बड़ी आवाज हैं. उन्होंने इस फैसले को लेकर कहाकि भारत को खेलों का बहिष्कार करना चाहिए. ओलंपिक मेडलिस्ट गगन नारंग ने भी इस फैसले पर निराशा जाहिर की. दरअसल, इस फैसले का भारतीय खिलाड़ियों पर कई तरह से असर पड़ेगा. अव्वल तो जो खेल बाहर हुए हैं उसमें भारत की मेडल दावेदारी मजबूत थी. इसे ऐसे समझिए कि 2022 कॉमनवेल्थ खेलों में भारत ने 61 मेडल जीते थे. इसमें से आधे यानी 30 मेडल उन खेलों में आए थे जो 2026 में कॉमनवेल्थ खेलों का हिस्सा नहीं होंगे. 2022 में भारत को रेसलिंग में 12, टेबल टेनिस में 7, बैडमिंटन में 6, टेबल टेनिस और स्कवाश में 2-2 और क्रिकेट में 1 मेडल मिला था. अब इसके दूसरे पहलू को भी समझिए.

कॉमनवेल्थ में पदक जीतने से खिलाड़ियों को होता है फायदा

भारत में सरकार कॉमनवेल्थ खेलों में मेडल जीतने वाले खिलाड़ियों को सरकारी नौकरी देती है, उन्हें इनाम मिलता है. अब नए हालात में बहुत से एथलीट इन सुविधाओं से वंचित रह जाएंगे. इसलिए भी भारतीय एथलीटों में निराशा है. अब आते हैं इस फैसले से मिले सबक पर. इस पूरे घटनाक्रम में सबसे बड़ा सबक कॉमनवेल्थ गेम्स फेडरेशन को मिला है. जो कॉमनवेल्थ खेलों की आयोजन समिति है. जो इस बात का फैसला करती है कि मेजबान शहर कौन सा होगा. इसके लिए बाकायदा एक प्रक्रिया होती है. अलग अलग देश अपने शहर के लिए ‘बिड’ करते हैं. जो आम भाषा में कहें तो बिल्कुल बोली लगाने जैसा होता है. आयोजन समिति को पूरा विस्तृत कार्यक्रम दिया जाता है. जिसे आप प्रेजेन्टेशन भी कह सकते हैं.

इस प्रेजेन्टेशन में बताया जाता है कि वो खेलों की मेजबानी के लिए क्या-क्या करने वाले हैं. क्या सहूलियतें देने वाले हैं? ये प्रेजेन्टेशन ना सिर्फ अपनी ताकत बताता है बल्कि ये भी बताता है कि वो दूसरे दावेदारों से बेहतर क्यों हैं? इस पूरी प्रक्रिया में ढंग से ‘लॉबिंग’ होती है. विक्टोरिया ने जब 2026 कॉमनवेल्थ खेलों की मेजबानी के लिए दावा ठोंका होगा तो ये सब कुछ किया होगा. अगर उसी वक्त किए गए दावों की व्यवहारिकता को परख लिया जाए तो इतने बड़े स्पोर्टिंग इवेंट को लेकर ऐसी अनिश्चितता नहीं आएगी.